ये मग़रिब से आती हवा न थी...



अँधेरे में रहस्य का आलाप है. इसमें सिहर जाने का सुख है.
वहां एक कुर्सी रखी है. बादलों के बरस जाने के बाद वह कुर्सी खुली जगह पर चली आया करती है. सर्द दिनों में धूप का पीछा करती रहती है. गरम दिनों की रुत में सीढ़ियों के नीचे के कोने में दुबकी हुई थोड़ी कम गरम हवा का इंतजार करती है. उस पर एक कुशन रखा है. कुशन पर रंगीन धागों से ढोला-मारू की तस्वीर उकेरी हुई है. दौड़ते हुए ऊंट की गरदन टेढ़ी है यानि वह संवाद कर रहा है. कहता है. "मुहब्बत की कोई काट नहीं है, वह ख़ुद एक बिना दांतों वाली आरी है."

मैं अभी भी कमरे में लेटा हुआ हूँ. रात के बारह बजे हैं. सोच रहा हूँ कि इस कुशन पर रेत के धोरों की तस्वीर धागों से बन जाती तो और सुन्दर दिखता. दौड़ते हुए ऊंट की पीठ पर सवार ढोला अपनी प्रेयसी मरवण से मुखातिब है. जिस वक़्त अपने कंधे पर प्रेयसी का हाथ नहीं पाता है, घबरा जाता है. प्रेम के लिए भागते जाने के इस अनूठे आयोजन का विस्तार असीमित है. अबूझ धोरों पर रेत की लहरों के बीच सुकून और बेचैनी की एक बारीक रेखा साथ रहती है कि इस रेगिस्तान में पकड़ा जाना मुश्किल है और अधिक मुश्किल है, बच पाना. ऊंट जितना तेज दौड़ता है, डर भी उतनी ही तेजी से उसका पीछा करता है. डर है कि भरी भरी छातियों और गुलाबी गालों वाली सुघड़ नवयौवना का साथ न छूट जाये. इसका तीखा नाक किसी और की नाक के नीचे न आ जाये. इसके लम्बे खुले हुए केश जो रात को और अधिक गहरा कर रहे हैं, उनसे कोई और न खेलता हो. कोई इसके एक आंसू को अपने शराब भरे प्याले में उतार न ले.  

आज की रात के इस लम्हे के बारे में मैंने कभी सोचा नहीं था कि ऐसे हवा दस्तक दे रही होगी. मैं लकड़ी के तख़्त पर लेटा हुआ, बाहर भाग जाने का सोच रहा होऊंगा. हम इसी तरह अपने जीवन को जीते हैं. ठीक इसी पल को थाम लेना चाहते हैं. आनेवाले पल की सूरत दिखती नहीं इसीलिए उसके प्रति आशंका है. उसके लिए आग्रह है कि जाने कैसा होगा? इसलिए जो ये पल है, अच्छा है. बस एक छोटी सी नौकरी, चंद शब्दों और आवाज़ का सफ़र... यश, प्रसिद्धि, बल, अधिकार, सामर्थ्य, प्रेम, दौलत और ऐसी ही सब चीज़ों के सफ़र में कुछ भी स्थायी नहीं है, फिर भी आने वाले लम्हे से कई वहम है. भय और लालच से बुनी गयी इस दुनिया में बस एक इंतज़ार स्थायी है, आखिरी वक़्त जब दुनिया से थक-हार जायेंगे तब भी बचा रहेगा.

बाहर के अँधेरे की ओर फ़िर से नज़र जाती है. वहाँ दीखता कुछ नहीं. बस सोचता हूँ कि क्या होता अगर वे कभी इस तरह न भाग पाते? क्या भूल ही जाते? वह पहली नज़र की मुहब्बत जेठ महीने में कितनी आँधियों और रेत के बगुलों के बाद मिट पाती? ऐसे सवालों के बीच, मैं अलग तस्वीरें बुन रहा हूँ. एक में किसी डायनिंग टेबल पर पंद्रहवीं सदी में पहने जाने वाली फ्रिल वाली स्कर्ट पहने हुए एक भरी देह की नवयौवना बैठी है. उसने अपने एक पैर को दूसरे पर चढ़ा रखा है. उसकी कोहनियाँ टेबल के किनारों पर टिकी है. जैसे वह अभी अभी कोई बात अधिकारपूर्वक कहने ही वाली हो. उसके भरे हए गाल गरदन के पास साफ दिखते हैं. जैसे मौसम का पहला फल इंतज़ार में और भारी हो गया है. बस मैं इतना दृश्य ही सोच पाता हूँ. मेरे ख़यालों से घटना या संवाद अक्सर गैर हाजिर रहते हैं.

अचानक अँधेरे के संसार की सोच में इस तरह के बेतरतीब ख़याल कैसे चले आते हैं, समझना मुश्किल है. लेकिन दूसरे दृश्य में एक नन्हा टोरनेडो है. जिसे मैं बतुलिया कहता हूँ. वह गोल चक्कर काटता हुआ मैदान में पड़े पत्तों, कागजों और ऐसे ही कचरे को अपनी बाँहों में गोल गोल घुमा रहा है. सम्भव है कि ये वर्तुल लालसाओं और कामनाओं का बिम्ब है जो सिर्फ़ रेत से भरा हुआ जूता खाने के योग्य है. हो सकता है कि इसी तरह के किसी अंधे वर्तुल ने ढोला के कसूम्बल रंग के ऊंट का रास्ता रोक लिया हो. या शायद ऐसे ही नन्हे टोरनेडो ने उस लड़की की स्कर्ट की फ्रिल को हवा में उड़ा दिया हो... और वह बहुत देर तक ये सोचती रही हो कि वो लड़का कौन था. जो अक्सर आधी टूटी दीवार पर बैठा रहता था. उस दीवार में लगी ब्रिक्स के लाल रंग पर जमी हुई धूल झरती रहती थी.

वो लड़का कौन था? क्या वहाँ कोई लड़का था... 
हवा फ़िर से दस्तक दे गयी है. जैसे कोई अपने गीले बालों को झटकते हुए गुज़रा हो. 

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