नहीं जो बादा-ओ-सागर


वह एक उच्च प्राथमिक विद्यालय था. चारों तरफ हल्की भीगी हुई रेत के बीच तीन कमरों के रूप में खड़ा हुआ. सुबह के दस बजने को थे. विद्यालय भवन की चारदीवारी के भीतर कई सारे नीम के पेड़ थे. कुछ एक जगह नए पौधे लगे हुए थे. उनकी सुरक्षा के लिए सूखे हुए काँटों से बाड़ की हुई थी. विद्यालय के मुख्य दरवाज़े के आगे बहुत सारे चार पहिया वाहन खड़े हुए थे. मैदान के ठीक बीच में बने हुए प्रार्थना मंच पर रंगीन शामियाना तना हुआ था. रेगिस्तान में दूर दूर बसी हुई ढाणियों के बीच के इस स्कूल में लगे हुए साउंड एम्प्लीफायर से कोई उद्घोषणा किये जाने का स्वर हवा में दूर तक फेरा लगा रहा था. गाँव भर के मौजीज लोग और आम आदमी सलीके से रखी हुई कुर्सियों पर बैठे हुए थे. कोई दो सौ लोगों की उपस्थिति का सबब था एक वृत्त स्तरीय विद्यालयी खेलकूद प्रतियोगिता का समापन समारोह. 

मैं सितम्बर महीने में हर शहर और कस्बे में देखा हूँ कि किशोरवय के लड़के लड़कियों के दल अपने विद्यालय का झंडा लिए हुए गंतव्य की ओर बढ़ते जाते हैं. वे अक्सर विद्यालय गणवेश में ही होते हैं. कुछ एक विद्यालय भामाशाहों से आर्थिक सहायता जुटा कर इन नन्हे बच्चों के लिए रंगीन बनियान उपलब्ध करवा पाते हैं. अभी परसों ही बादलों का फेरा था और हल्की फुहारें पड़ रही थी. गाँव के किसी विद्यालय का झंडा थामे हुए नन्हीं बालिकाएं हैरत भरी निगाहों से शहर की सड़कों पर चल रहे वाहनों को देखती हुई और पांवों में चिपकते जा रहे कीचड़ से बचती हुई चल रही थी. मैंने ज़रा रुक कर देखा कि इनमें से कोई लड़की मैरिकॉम जैसी दिख रही है या फिर कोई सायना नेहवाल. वे लड़कियां भले ही इन नामों से बेखबर न रही हों मगर उस वक़्त वे शहर की इस यात्रा के उल्लास से भरी हुई दिख रही थी. 

जिस विद्यालय में वृत्त स्तरीय खेलकूद प्रतियोगिता का समापन था, वहां का वातावरण उत्साह से भरा हुआ था. विधायक महोदय मुख्य अतिथि थे. उनके आगमन के कारण ही कई प्रभावशाली और समृद्ध लोग भी उपस्थित थे. मंच पर पुरुस्कार वितरण समारोह होना था. पुरुस्कारों के रूप में किसी विशेष धातु के बने प्रतीक चिन्ह रखे हुए थे. एक जो सबसे बड़ा था वह ऊंट था. उसके चारों तरफ चमकती हुई झालर लटक रही थी. यह उस विद्यालय को दिया जाना था, जिसने सर्वाधिक प्रतियोगिताएं में विजय प्राप्त की थी. इसके बाद बहुत सारे बाज़ उड़ने के लिए पंख फैलाये हुए थे. कुछ छोटे आकार के बाज़ भी थे. इन सब पुरस्कारों के लिए धन उपलब्ध करवाने वाले सज्जन इस समारोह के अध्यक्ष थे.

मुझे वहां बैठे हुए महात्मा गाँधी की पुस्तक ग्राम स्वराज की खूब याद आई. गाँधी जी का दर्शन जो ग्रामीण अर्थ व्यवस्था के उत्थान से राष्ट्र विकास का एक सच्चा और सार्थक रास्ता दिखाता है, वह यहाँ साकार था. यहाँ लोगों के चेहरों पर ख़ुशी और आत्मीयता थी. सबसे कम संसाधनों में सबसे अधिक प्यार था. खेल के मैदान में हार और जीत से इतर बच्चों के हौसले की बढ़ोतरी करती हुई आवाज़ें थी. ख़ुशी और उदासी के लिए कितनी छोटी - छोटी सी बातें पर्याप्त होती है. खुशी कबड्डी कबड्डी बोलने में भी है और खुशी ये लगा छक्का में भी है। ये दोनों खुशियाँ एक दूसरे से बहुत दूर हैं। आईपीएल यानि इंडियन प्रीमियम लीग जो फटाफट क्रिकेट का सबसे अधिक कमाई वाला आयोजन है। इसे देश और दुनिया का बहुत बड़ा दर्शक वर्ग प्राप्त है। इसे मनोरंजन कर में छूट हासिल है। इसके आयोजन में भद्र और श्रेष्ठी वर्ग की गहरी रुचि है। यह लोकप्रियता का शिखर है।

इधर गाँव में सादगी थी. बच्चों का कलरव था. गाँव के सीधे सादे लोगों का स्नेहिल सहयोग था। इसी देश के दूसरे भव्यतम आयोजनों को हम सब ने विशाल स्क्रीन पर खूब देखा है. एयरलाईन की हवाई सुंदरियाँ, फैशन शो में छाई रहने वाली, सूखी हुई काले पीले रंग की देह वाली केट्वाक गर्ल्स, अपने पांवों को विशेष ज्यामिति में सलीके से टेढ़े किये खड़ी रहती है. उनके बीच में सियासत के नामी लोग सफ़ेद लिबास में उपस्थित रहते हैं। सरकारी तंत्र का जम कर उपयोग होता है। यहाँ बच्चों के लिए पुरस्कार उपलब्ध करवाने वाले गाँव के उन भामाशाह को सरकार से कोई फायदे की उम्मीद नहीं है। किन्तु सरकार हमेशा खिलाड़ियों से उम्मीद करती आई। हमारे देश में खेल और खिलाड़ियों को सुविधाओं के नाम पर रोना रोये जाने की एक तवील परंपरा है मगर करता कोई भी कुछ नहीं है.

दुनिया के अरबपतियों में शुमार भारतीय, खेल के लिए बहुत उदासीन है. वे सिर्फ सुविधा संपन्न खिलाड़ियों के ओलम्पिक में पदक जीतने पर ही अपने खेल प्रेम से कोंपलें फूटते हुए देख पाते हैं मगर सुविधा उपलब्ध करने के नाम पर शून्य ही हैं. ओलम्पिक में पदक जीतना दुनिया के सब खिलाड़ियों को पछाड़ देने वाला अतुलनीय खेल कौशल है लेकिन जीतने से पहले और जीतने के बाद का अंतर बहुत बड़ा है. इस अंतर को दूर किया जाना ही राष्ट्रीय स्वाभिमान की बात होगी. गाँव के मैदानों में बिना जूतों के खेलते हुए ध्यानचंद कभी टर्फ मैदानों तक नहीं पहुँच पाते हैं. गाँव के इन विध्यालयों में एक शटल कॉक को तब तक छोड़ा नहीं जाता है जब तक कि उसके पंख तो क्या उसका बेस तक न टूट जाए। ओलंपिक में जिन खेलों में पदक दांव पर लगे होते हैं, उन खेलों की आधारभूत सुविधाएं भारत के भारत के नब्बे फीसद खिलाड़ियों को कभी नहीं मिल पाती है।

राज्य सरकार ने शारीरिक शिक्षकों को कक्षा में जाकर पढ़ाने का आदेश दे रखा है. खेलकूद को एक तरह से फालतू का काम समझ लिया गया है। विद्यालयों के पास इतना धन उपलब्ध नहीं होता है कि वे राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं का खर्च खुद उठा सकें. सरकारी दौरे पर जाने वाले खेलकूद के अध्यापक अध्यापिकाओं को अपने यात्रा के किराये और भत्ते के लिए बरसों प्रतीक्षा करनी होती है. खेलकूद प्रतियोगिताओं में विजता रहे बालक बालिकाओं के लिए नौकरियों में कोई अवसर बचे ही नहीं हैं. खेलकूद में अव्वल विध्यार्थियों को मिलने वाली छात्रवृति फैशन के दौर में घटते हुये कपड़ों की तरह सिकुड़ गई है। ‘खेलोगे कूदोगे तो होवोगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब’ की पूंछ हर माँ बाप ने पकड़ रखी है। ये ही माँ बाप अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को देख कर आहें भरते हैं कि काश उनके बच्चे भी ऐसा हो पाते, मगर खुद के बच्चों को खेलने नहीं देते।

गांवों और तहसील मुख्यालयों में होने वाली ये खेल प्रतियोगिताएं मुझे खूब आकर्षित करती है। मैं यहाँ भारत देश की नयी पीढ़ी को देखता हूँ। यूं ज्यादा उदास भी नहीं होता हूँ, नई दुनिया के सबसे अग्रणी खेल कौशल वाले देश का ख्वाब और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब का शेर अपने साथ रखता हूँ। “किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालों/ नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हा-ओ-हू ही सही”
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[Image courtesy : panoramio]