ये मैं ख़ुद नहीं जानता

कभी-कभी स्वप्न में जेबें छुहारों से भरी होती हैं

जैसे कभी-कभी दिल उसकी चाहना से भर जाता है।
तन्हाई में कच्ची दीवार पर बैठा रहता। दोपहर में लम्बी धूपिया धुन बजती रहती। किसी शाम मुंडेर से नीचे पांव लटकाये हुए आंखें गली को देखती थी। सूनेपन में जब कोई दिख जाता तो आंखें कहीं और देखने लगती। तपती खाली दोपहर, सूनी सांझ और तारों भरी नीरव रात किसी की मोहब्बत कैसे हो सकती है? मगर थी।
एक बार दिल किसी काम में लग गया। खेल, जुआ या मोहब्बत, तो फिर वह अपना कुछ नहीं सोचता था। दिल शुरुआत करना तो जानता था मगर सलीके से कुछ भी सम्पन्न करना सीख नहीं पाया। यही खामी अकसर एक ख़ूबी बन जाती थी कि जिंदगी को गुज़रना होता है वह गुज़रती रहती थी।
आज दिल भर आया। चाहने वालों से और जिनको चाहा। फिर उसी कच्ची दीवार, उसी मुंडेर, उसी नीरव रात के पास लौट जाने का मन हुआ। मगर वह किशोर बहुत पीछे छूट गया है, जिसके पास ये सब था।
अब एक बेहद मीठी शराब है। सुरूर तो होता है मगर कोई बात गुम है। जैसे जेबों से सब छुहारे गिर गए हों। मैं बेहद पुरानी व्हिस्की या छुहारों से कितना प्रेम करता हूँ, ये मैं ख़ुद नहीं जानता।
जैसे होना। तुम रहना।
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