ठहरी हुई सतर

जीवन भीतर से तरंगित होता है। कभी-कभी उसकी आवृति इतनी क्षीण होती है कि सुनने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है। सुस्त बाज़ार में खाली पड़ी नाई की दुकान, किराणे की पेढ़ी के आगे सूनापन और चाय की थड़ी की बैंचों पर पसरी चुप्पी दिखाई देती है।

असल में जीवन का बाजा तब भी बज रहा होता है। सूनी बैंचों पर बैठे हुए, दुकानों के आगे बने ओटों पर ज़र्दे को थपकी देते और बीड़ी सुलगाते लोगों की स्मृति ठीक से बुझ नहीं पाती उससे पहले दृश्य में नए चेहरे समा जाते हैं।
एक ठहरी हुई सतर पर कुछ नए लफ्ज़ गिरते हैं और वह आगे बढ़ जाती है।
मैं ऐसे दृश्यों को शब्दों में बांध लेना चाहता हूँ। दीवार पर अशुद्ध वर्तनी में लिखे अनुरोध पढ़ते हुए देखना चाहता हूँ कि पिछली बरसात से अब तक दीवार पर स्याह रंग कितना बढ़ गया है।
सड़क पर उड़ते कागज़ के कप, बुझी हुई बीड़ियाँ, सिगरेट के टोटे और पान मसालों की पन्नियां समय के निशान हैं। संझा होते ही इनको बुहार दिया जाता है तब लगता है जैसे किसी गहरी झपकी से जाग गया हूँ। खुद को देखता हूँ कि मैं बिल्कुल नया हूँ।
मैं जो वहीं बैठा था। समय जो निरन्तर बीत रहा था। जीवन जो अपनी उम्र में एक टिक आगे बढ़ गया था।
कुछ भी ठहरा हुआ नहीं होता। न सुख न दुख।
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