चंद तस्वीरें बुतां

एक शेर को लेकर कुतूहल हुआ। मैंने उसके लिए कुछ खोजबीन की लेकिन नाकामी हाथ लगी। एक तो उर्दू का अलिफ बे नहीं आता। दूजा लिपि से पूरी तरह अनभिज्ञ, इसलिए दोनों शेर लिखकर पोस्ट कर दिए। 

कुछ उर्दूदाँ मेरी पोस्ट पढ़कर इधर आते तब तक डरे-डरे मन से रेख़्ता में झांका। उर्दू कविता को सहेजने और लोकप्रिय करने का काम करने वाली इस वेबसाइट का मानना है कि बज़्म अकबराबादी का कहा शेर इस तरह है- 

चंद तस्वीरे बुतां चंद हसीनों के ख़ुतूत 
बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला। 

पर्शियन भाषा के एक उस्ताद ने लिखा है कि चंद तस्वीरें बुतां शेर एक प्रसिद्ध शायर के नाम मढ़ दिया गया है। उनका इशारा मिर्ज़ा ग़ालिब की ओर है, ऐसा मुझे लगता है। 

वे सज्जन एक बहस में कह रहे हैं कि बज़्म अकबराबादी के शेर को बदल कर ये शेर कहा गया है। उनका कहना है कि बज़्म अकबराबादी का शेर ये है- 

इक तस्वीर किसी शोख़ की और नामे चंद 
घर से आशिक़ के पस-ए-मर्ग यही सामां निकला। 

थोड़ी सी देर में एक दोस्त का मैसेज आ गया। उनका कहना है कि ये मिर्ज़ा साहब की भाषा और सलीका नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने वह ग़ज़ल भी भेज दी, जिसमें इस शेर को शामिल समझा जाता है। 

शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला 
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उर्यां निकला 

ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की या रब 
तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पर-अफ़्शाँ निकला 

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल 
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला 

दिल-ए-हसरत-ज़दा था माइदा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द 
काम यारों का ब-क़दर-ए-लब-ओ-दंदाँ निकला 

थी नौ-आमूज़-ए-फ़ना हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद 
सख़्त मुश्किल है कि ये काम भी आसाँ निकला 

दिल में फिर गिर्ये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब' 
आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला 

कार-ख़ाने से जुनूँ के भी मैं उर्यां निकला 
मेरी क़िस्मत का न एक-आध गरेबाँ निकला 

साग़र-ए-जल्वा-ए-सरशार है हर ज़र्रा-ए-ख़ाक 
शौक़-ए-दीदार बला आइना-सामाँ निकला 

कुछ खटकता था मिरे सीने में लेकिन आख़िर 
जिस को दिल कहते थे सो तीर का पैकाँ निकला 

किस क़दर ख़ाक हुआ है दिल-ए-मजनूँ या रब 
नक़्श-ए-हर-ज़र्रा सुवैदा-ए-बयाबाँ निकला 

शोर-ए-रुसवाई-ए-दिल देख कि यक-नाला-ए-शौक़ 
लाख पर्दे में छुपा पर वही उर्यां निकला 

शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना ख़ून-ए-वफ़ा से कब तक 
आख़िर ऐ अहद-शिकन तू भी पशेमाँ निकला 

जौहर-ईजाद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ है ख़ुद-बीनी-ए-हुस्न 
जो न देखा था सो आईने में पिन्हाँ निकला 

मैं भी माज़ूर-ए-जुनूँ हूँ 'असद' ऐ ख़ाना-ख़राब 
पेशवा लेने मुझे घर से बयाबाँ निकला। 

बज़्म अकबराबादी के बारे बहुत कम जानकारी मिल पाती है। उन्होंने बहुत सारे मर्सिया लिखे हैं। उनको एक वेबसाइट ने पीडीएफ फॉर्मेट में अपलोड किया हुआ है। 

धन्यवाद।

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