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मुंह के बल औंधे गिरे हों और लॉटरी लग जाये

तुमको एक लट्टू की तरह घुमाकर धरती पर छोड़ दिया गया है। तुम्हारा काम है घूमते जाना और देखते-सीखते रहना। लुढ़क तो एक दिन अपने आप जाओगे। 

जीवन आरोहण में उम्र कम होती जाती है और जीवन बढ़ता जाता है। उम्र की तस्वीर में रेखाओं की बढ़ोतरी जीवन चौपड़ की अनेक कहानियाँ कहती हैं। मनुष्य एक आखेटक है। वह अपने रोमांच और जीवन यापन के लिए निरंतर यात्रा में बना रहता है। असल में यात्रा ही जीवन है। अगर सलीके से दर्ज़ कीजाए तो कुछ बेहद छोटी यात्राएं भी हमें अनूठे आनंद से भर देती हैं। मेरा बेटा ऐसी ही एक छोटी सी यात्रा पर मेरे साथ था। 

इस दौर के बच्चे सबसे अधिक सितम बरदाश्त कर रहे हैं। उनको अनवरत माता-पिता की लालसा और पिछड़ जाने के भय की मरीचिका में दौड़ते जाना होता है। दस साल का बच्चा है और चौथी कक्षा में पढ़ता है। समझदार लोगों से प्रभावित उसकी मम्मा कहती है कि ये एक साल पीछे चल रहा है. मैं कहता हूँ कोई बात नहीं एक साल कम नौकरी करनी पड़ेगी। हम सब अपने बच्चों को अच्छा नौकर ही तो बनाना चाहते हैं। दरिया खत्म, बांध तैयार। लेकिन फ़िलहाल हम दोनों में ये तय है कि वह जैसे पढ़ और बढ़ रहा है, उसकी मदद की जाये। 

बाड़मेर एक छोटा सा क़स्बा है और यहाँ के बाशिंदे ख़ुद को शहरी नहीं समझते। शहर के नाम पर हमारे नज़दीक का शहर जोधपुर है। मुझे शहर जाने के दो ही कारण समझ आते थे। एक था कि किसी कि तबीयत खराब है और दूजा बड़े कोर्ट में पेशी है। उसी जोधपुर जाने वाली सड़क पर मेरा पैतृक गाँव पड़ता है। 

हम पिता पुत्र दो बजे घर से निकले। बाइक से गाँव आना-जाना आसान लगता है। मैं बाइक चला रहा था और बेटा पीछे बैठा था। आज कल बेटा मेरे साथ रहना पसंद करता है, ऐसा क्यों है ? इसका कारण मुझे पता नहीं है। शायद छोटे बच्चे जानते हों कि माँ-बाप से चिपक कर बैठ सको जितना बैठ लो कि बाद में जाने ये हो कि न हो। समझदार हुये माँ बाप सबसे बड़े मूर्ख होते हैं जो सोचते हैं कि हाँ सब यहीं है कहाँ जा रहे हैं? फिर एक रोज़ आप जिसकी बाहों में होना चाहते हैं वे बाहें नहीं होती। 

मेरी बाइक यात्राओं में पहले बेटी होती थी। अब वह बड़ी हो रही है इसलिए अपनी मम्मा और चाचियों से चिपकी हुई ऐसी यात्राओं में स्त्रीसंवाद रस का सुख उठाती है। हो सकता है उसकी मम्मी उसे जानबूझकर साथ रखती हों कि स्त्रियों की कड़ी दुनिया में उपहास, व्यंग्य और उपेक्षा को झेलना और बरतना सीख सके। मैं सोचता हूँ कि इस तरह स्त्रियाँ अपने आस-पास एक कड़ा असहनीय तंत्र रचकर सुरक्षा का घेरा बनाती हैं। वे थोड़ा चतुर बनती है। वे बातों ही बातों में दूसरों के मंसूबों का आंकलन करने का हुनर सीखती हैं। हो सकता है ऐसा कुछ न हो। 

सिणधरी चौराहे से बाईं तरफ होते हुये आप क़स्बे से बाहर निकलते हैं तो चौराहे पर टिड्डी नियंत्रण के लिए बना दफ्तर है। मौन खड़ा रहता है। इसके आहते में कभी कोई व्यक्ति नहीं दिखता। इसके बंद दरवाज़े गठिया के शिकार हैं। इसके आस-पास विदेशी बबूलों का जंगल है, उनके बीच से बर्फ फैक्ट्री को रास्ता जाता है। इसी रास्ते पर पर्यटन विभाग का मोटेल है खड़ताल। यहाँ कोई नहीं आता जाता। कुछ एक नौजवान इस वाद्य के नाम की लाज रखने के लिए शाम को आते हैं। वे पहले मल्लिनाथ सर्कल के बीच के घेरे में बैठते हैं। बीएसएफ़ की बाड़ को देखते हुये उकता जाते हैं। ट्रैफिक बढ़ने लगता है तब इस मोटेल की चारदीवारी के अंदर चले आते हैं। यहीं खाली बोतलों और पव्वों की खनक से खड़ताल के सुर की याद को हवा में घोल देते हैं। अब ये मोटेल तेज़ी से उजड़ रहा है। ये लोग कब तक इन सुरों को ज़िंदा रख पाएंगे कहना कठिन है। 

उत्तरलाई जाते मार्ग पर शहर से बाहर निकलते ही कल्लजी का थान है। इसे पालिया भी कहते हैं। हमारे गाँव के माली परिवार के एक ट्रांसपोर्टर के बेटे थे। एक शाम बाड़मेर-शहर से गाँव की ओर लौटते हुए, उनकी आर्मी डिस्पोजल जोंगा गाड़ी पलट गई थी। उनकी आत्मा ने सामान्य मनुष्य की तरह इस दुनिया को छोड़ने से मना कर दिया था। शराबी और प्रेमी हठी होते ही हैं। उनके हठ के मृत्योपरांत चलने का ये अद्वितीय उदाहरण है।

जिस रात कल्लजी का निधन हुआ, उसके एक महीने बाद से उनके परिवार में अजब वाकये होने लगे। उनकी जोंगा गाड़ी गेरेज में अपने आप स्टार्ट हो जाती थी। कुछ का कहना था कि गेरेज का फाटक भी खुलता था और वह बाहर आ जाया करती। इस तरह की और घटनाओं के बाद कष्टों की मुक्ति के लिए उनसे आशीर्वाद माँगा जाने लगा कि परिवार की रक्षा अब आप ही करो। उनके दिवंगत होने के स्थान को, उनके रहने के लिए एक पवित्र स्थल की तरह थापा गया। 

कल्लजी को पूजने के लिए बने चबूतरे के पास से गुज़रने वाले पत्थरों से भरे ट्रक एक-दो खंडे श्रद्धापूर्वक डाल कर आगे जाया करते थे। इस कारसेवा से उस चबूतरे के आस-पास कुछ ही सालों में पत्थरों का बड़ा जमावड़ा हो गया. यह स्थान उत्तरलाई एयर फ़ोर्स स्टेशन के ठीक पास है तो वहां कार्यरत वायुसैनिक इस स्थान को पत्थर बाबा कहने लगे। पत्थर बाबा को शराब और सिगरेट से बहुत प्यार था तो प्रसाद के रूप में यहाँ पर यही मिलता भी है। आप चाहें तो नारियल या मखाणे भी चढ़ा सकते हैं मगर असल भक्त बोतल-पव्वा और सिगरेट लेकर आते हैं। अब रेड एंड व्हाइट कम ही मिलती है इसलिए बाबा फॉर स्क्वायर या छोटी गोल्ड फ्लेक भी स्वीकार लेते हैं। 

पालिए के साथ एक बैठक बन गयी है। ऊपर चबूतरा है नीचे बैठक है। पहले श्रद्धालु आते थे। कंजूसी से शराब की दो बूंद डालते और बोतल लेकर घर चले जाते थे। इस बात से कोई सामाजिक सरोकार नहीं बनता था। इसलिए स्थानीय प्रबुद्ध नौजवानों ने ड्यूटी निर्धारित की, इसके तहत एक नौजवान को सेवक के रूप में सेवा देनी होती थी। वह श्रद्धालु के आते ही उसे समझाता कि इस जगह चढ़ाई हुई शराब को घर ले जाने या कहीं और ले जाने से चढ़ावा अधूरा माना जाता है। इसके बाद सूचना कर दी जाती कि कोई श्रद्धालु आया है। सेवा में सहयोग के लिए आ जाओ। परहित ही इस लोक का श्रेष्ठ कार्य है। इसमें रेगिस्तान के लोग कभी पीछे नहीं हटते। वे आगे होकर हाथ बँटाते हैं। कड़वी और बिना बर्फ वाली शराब को गले से उतारने का कष्ट उठाने में चेहरे पर कोई शिकन नहीं लाते। भलोस करे कलल्जी। 

कल जैसे ही मैं कल्लजी के थान के पास पहुंचा, बाइक पर पीछे बैठे हुए बेटे ने कहा "पापा, सोचो कि आप अभी बाइक चलाते हुए मुंह के बल गिर जाओ। आपको ज्यादा चोट नहीं आये। आँख खुलते ही आप देखो कि आपके चेहरे पर एक लॉटरी का टिकट चिपका हुआ है। उसका नंबर है नौ आठ आठ नौ सात नौ आठ... फिर आप उस टिकट को चेहरे से हटा कर फैंक देते हो और चल देते हो। इतने में आपको मालूम होता है कि उस टिकट पर तो बहुत बड़ा ईनाम खुला है। अब आप क्या करोगे? क्या लौटकर उस टिकट को खोजोगे या फिर अपने काम से काम रखते हुए आगे चले जाओगे" इस कहानी का कथानक काम्प्लिकेटेड था और मैं कल्लजी के ख़यालों में गुम था। इसलिए बचने को मैंने पूछ लिया- "छोटे सरकार आप क्या करते?"

उसका जवाब था "मैं खोजता फिर भी नहीं मिलती तो मुझे अफ़सोस होता कि एक अच्छा खासा मौका हाथ से निकल गया" इस कहानी में औंधे मुंह गिरने की वास्तविकता है और उड़कर आया लॉटरी का टिकट आशा की अतिरंजना है। मुंह पर चिपक जाना सबसे बुरी स्थिति में भी असामान्य अवसर है। लेकिन फिर हालात वही है कि टिकिट खो गया है।

हम सब हर रोज़ खोयी हुई अतिकाल्पनिक चीज़ों का अफसोस करते रहते हैं। हमारे सहज मन को जब भी दुनियावी दौड़ से फुरसत मिलती है। हम शेख़ चिल्ली हो जाते हैं। एक ख़याली यात्रा से सचमुच की यात्रा सदा बेहतर होती है। जो इस ख़ूबसूरत और अविश्वसनीय दुनिया से हमारा परिचय करवाती है।
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यात्रावृतांत - पहली कड़ी 

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