एक दिन सब कुछ हो जाता है बरबाद

ये तस्वीर एक डूबती हुई शाम की है. ऐसी शाम जो याद के संदूक की चाबी हो. आपको रेत पर बिखेर दे. पूछे कि मुसाफ़िर कहाँ पहुंचे हो, क्या इसी रास्ते जाना था और कितना अभी बाकी है. क्या कोई एक ख़्वाब भी था या फिर यूं ही गुज़र गयी है. मगर ये न पूछे कि उसका जवाब क्यों नहीं आया और तुम कब तक करोगे इंतज़ार ? 

अगर पुकारूँ तुम्हारा नाम तो थम जायेगा सब कुछ
हवा, पत्ते, रेत और चिड़ियों का शोर
मगर यह नहीं होगा, एक जानलेवा तवील सन्नाटा.

यह होगा कहानी के बीच का अंतराल,
तस्वीर में पहाड़ और सूरज के बीच की दूरी,
कहे गये आखिरी दो शब्दों के बीच का खालीपन
ख़ामोशी की धुरी के दो छोर पर मिलन और बिछोह.

तुम्हें आवाज़ देने से बेहतर लगता है कि
हो सकूँ काले मुंह वाली भेड़ और चर लूं बेचैनी के बूंठे
हो सकूँ रेगिस्तान और इंतज़ार को रंग दूं, गहरा ताम्बई.

फिर कभी सोचता हूँ कि हो जाऊं
दिल की कचहरी के बाहर आवाज़ देने वाला चपरासी 
और फिर सिर्फ इसलिए रहने देता हूँ
कि ख़ामोशी की ज़मीन पर खड़े हुए हैं, याद के हज़ार दरख़्त.

उनकी बेजोड़ गहरी छाया, तुम्हारी बाँहों जैसी है
वे सोख लेते हैं, आवाज़ों का शोर
जैसे तुम्हें चूम लेने का ख़याल, मुझे भुला देता है सब कुछ.

काश मैं कभी नहीं पुकारूँ तुम्हारा नाम
कि एक दिन सब कुछ हो जाता है बरबाद, ख़ामोशी के सिवा.
* * * 
[Image courtesy : 1.3 MP camera of my cell phone]