हम जाने कहाँ चले गए



संसार है एक नदिया दुःख सुख दो किनारे हैं

स्टूडियो की ख़ुशबू आकाशवाणी के दरवाज़ों तक साथ चली आती है। सर्द सुबहों की हल्की धूप में बुझते अलाव के पास बैठे हुए लगता है कि टर्न टेबल पर ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड अभी घूम रहा है। निडल नोट्स को सस्वर पढ़ रही है। स्पीकर के अलावा रिकॉर्ड के पास से भी एक महीन आवाज़ आ रही है। वायलिन प्लेयर आंखें मूंदे हुए बजाए जा रहा है।

लेकिन ग्रामोफ़ोन रिकार्ड्स अब लाइब्रेरी की सीलन में चुप पड़े हैं। आधी नींद में उद्घोषणाएं करने वाले उदघोषक बूढ़े हो चले हैं। चाय ताज़ा है मगर उसका परमानंद खो चुका है। सुबह-सुबह के लतीफ़े सूखे पत्तों की तरह झड़ चुके हैं। हम बीती रात की कारगुज़ारियों पर न हंसते न उदास होते हैं। कम ओ बेश शक्ल वही है पर हम जाने कहाँ चले गए।


प्ले लिस्ट में बैठे वे ही पुराने गाने अब नए अर्थों में पीछा कर रह रहे हैं।