मैं अपनी एक बेहद झूठी तस्वीर हूँ



लगता है ऐसा कभी कभी
जैसे कि शाम ढल गयी।

हर दिन मैं एक नए मन के साथ जागता हूँ। मैं बहुत कुछ भूल चुका होता हूँ। अपनी ही लिखावट को पढ़कर याद नहीं कर पाता कि ये किसके लिए लिखा था। मेरी लिखावट में किसी का नाम नहीं होता। इससे भी अधिक मुश्किल की बात ये है कि अक्सर लिखावट में किरदार इतने गहरे और सुंदर लिखता हूँ जितना मैंने उनको सुंदर होना चाहा था। ऐसे किरदार दोबारा सच में कभी खोजे नहीं जा सकते।

तस्वीरें इसके उलट एक खाका अपने साथ लिए बैठी रहती हैं। जैसे अभी-अभी ही उस कॉफी टेबल से उठ कर आया हूँ। लेकिन एक दिक्कत है कि तसवीरों में भी किरदार छुपाए जा सकते हैं। हम बाद अरसे के हमारी मुस्कान और दुख को नए अर्थों में पढ़ पाते हैं।

ये सच है कि लिखावट झूठ से भरी होती है। तस्वीरें झूठी नहीं होती ऐसा नहीं है लेकिन वे इसलिए बच निकलती हैं कि वे कभी कुछ कहती नहीं। केवल देखने वाला ही उनको पढ़ता है।

मैं अपनी एक बेहद झूठी तस्वीर हूँ।

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