मैं चलकर मुझतक जाना चाहता था

मैं कब का लौट चुका था मगर अचानक वहीं पहुंच जाता था। हवा सूखे फूलों को बुहारती किनारे कर गयी थी। रास्ता दूर तक सूना हो गया। छीजती रोशनी फर्श पर गिर रही होती मगर लाल झाईं नहीं उग पाती। सलेटी रंग दूर जाकर स्याह हो रहा होता।

हुजूम छंट चुका होता। लोग जा चुके होते। सूनी सड़क से उठते सन्नाटे के बगुलों की तरह आस-पास के कोनों में कोई धुन बजती रहती। वहां खड़े हुए मैं ख़ुद को देखने लगता कि क्या वो मैं उसी चेहरे को तलाश रहा है? लेकिन मुझे मैं कभी इस तरह खोजता हुआ न मिला। बल्कि हर बार झुके कंधे और थोड़ा सा सिर झुकाए हुए चुप खड़ा देख पाता।

मैं चलकर मुझ तक जाना चाहता था। कि पूछ सकूँ तुम बार-बार यहां क्यों चले आते हो। ये किसी का घर नहीं है। यहां से कोई बस किसी जगह नहीं जाती। यहां से कोई रेल भी नहीं गुजरती। ये एक ऐसी जगह है जहाँ खुद चलकर आना पड़ता है, खुद ही जाना। मैं ये पूछने को बढ़ना चाहता तो पाता कि रोशनियों की लकीरें धुंध में बदल रही है। मैं जो वहां खड़ा था कहीं गुम हो गया हूँ।

मैंने बहुत बार सोचा कि वहां ऐसा क्या हो सकता है जो मुझे खींच लेता है। विरल ही लेकिन ऐसा भी होता है कि हम साए से कहते हैं, तुम साथ रहना और वह चला आता है। ऐसे ही एक साया, एक स्मृति, एक अनदेखी अनुभूति वहीं रही होगी कि मैं अक्सर बन्द कमरे में रोशनदानों से आती रोशनियों के बीच खड़ा होता। अपनी खोज में निकलता तो ख़ुद को वहीं खड़ा मिलता।

बरसों मैं उसी जगह भटकता रहा। जब तक कि मैंने ये न सुना था कि पहले माले पर रेलिंग के सहारे एक साया या किसी का वो खुद वहां खड़ा रहता है।

ऐसा सुनते ही उन धुंधली रोशनियों के बीच से मैं गायब हो गया। जैसे मेरा वहां होना, अतीत में बहुत दूर भूली-बिसरी न पहचाने जाने वाली उपस्थिति भर हो।

तो मेरा क्या हुआ। क्या मुक्ति हो गयी। उदास सीली रोशनियों ने मुझे छोड़ दिया या मैं कहीं और चला गया था।

एक शाम मैंने वैसी ही आवाज़ सुनी जो उस जगह पर सुनी थी। मैंने सोचा कि अब रेगिस्तान का बुझता ठंडा दिन वैसी ही रोशनियों से भर जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। मैं दूर तक टहलता रहा।

मैं जाने कहाँ कहाँ खुद को खोजने जाता रहा हूँ। वह मैं अकेला नहीं होता हूँ। हमारा जीवन जितना बाहर से इकहरा दिखता है, असल में उतना होता नहीं। हम जाने कहाँ भटकते रहते हैं। अजीर्ण प्यास से भरे हुए। अजाने संसार के अनदेखे रास्तों पर चलते रहते हैं।

कोई नहीं जान सकता कि इस समय हम कहाँ हैं।

मुझे परालौकिक शक्तियों पर विश्वास और अविश्वास जैसा कुछ नहीं है। मैं जानता हूँ कि अभी यहाँ बैठा हूँ मगर यहां हूँ नहीं। मैं गुज़रे मौसमों की आहटें अपने पास सुनता हूँ जबकि वे बहुत पीछे छूट चुके होते हैं ना दोहराये जाने के लिए।

क्या सचमुच कुछ ख़त्म होता है? नहीं। वे मौसम जो मेरी नज़रों से खो गए। मैं जब खुद से खो गया तो हम फिर टकरा गए।

एक गहरी सांस आने तक हम कुछ सांसें स्किप कर चुके होते हैं। मैं दिखते जीवन को स्किप करता जाता हूँ। मैं कब तक इसी तरह चलता फिरता खुद को देख सकता हूँ। इसलिए मैं धुंध में ढलती रोशनियों, उजाड़ रास्तों के मादक बुलावों और न बुझने वाली कसक के भीतर खो जाता हूँ।

तुम इसे नहीं समझोगे जब तक तुम खुद को खोजने का सिलसिला न बुनोगे। ये भी तब तक आरम्भ न होगा जब तक तुमको ये मालूम न होगा कि तुम यहाँ हो पर यहां नहीं हो।

एक मैं जो यहां बैठा लिख रहा है, दूजा मैं बहुत दूर अलसाया अधलेटा है।