छायाकार की तस्वीर में रखी बेचैनी

मैं कुछ भी हो सकता था
मगर उसके बिना क्या ही था?

अचानक एक बीता लम्हा याद आता है। बेचैनी, उद्विग्नता और डर से भरा हुआ। कि अब वो जाने कहाँ होगा। इसके बाद तेज़ क़दम मैं भागने लगता।

मैं चल रहा होता मगर लगता कि भाग रहा हूँ।

एक दस्तक होती। वह जाने कहाँ है। मैं जाने क्या चाहता हूँ। हम क्या करेंगे। दुनिया के किस सांचे में ये फिट होगा। क्या इससे कुछ बनेगा। क्या इससे कुछ बिगड़ जाएगा?

जो हो सो हो।

हर कदम और हर सांस पर एक लंबी और न खत्म होने वाली प्रतीक्षा बनी रही। कुछ ऐसा न था कि मैं मुस्कुरा सकूँ। मैं आवाज़ दे सकूँ। मैं कह सकूँ कि तुम्हारा होना कितना और क्या है।

वह जो भी है। वह तस्वीर ले रहा है या तस्वीर में बेचैनी पढ़ रहा है। वह वही है। लेकिन ये तस्वीर वही लम्हा है। जहां मैं गुंजलक खड़ा हूँ। कब कौन कुछ सब कह सकता है।

मैं कितनी अजीब तरह से देख रहा हूँ। इसलिए कि मैं ऐसा ही हूँ। कि मेरे साथ सुबह के रूमानी ख़्वाब देखता। चौंक कर जागता हुआ, वही है।

ये दुनिया वैसी नहीं है। जैसी हमको सिखाई गयी है। ये उतनी साफ, सरल और सीधी नहीं है। इस दुनिया का ऐसा होना केवल कल्पना है। असल में दुनिया एक जादू का भयभीत करने वाला पिटारा है।

चाहनाएँ चुप और संजीदगी मुखर रहती।

केसी।

तुम बुला लेना। इसी बात पर उम्र भर पश्चाताप न रहेगा कि बुलाया न था।