रेत को देशनिकाला



कंगूरे पूछते हैं
यहां तक कहाँ से आ जाती है, रेत।

मेहराबें कहती हैं
नीच चीज़ें ही होती हैं सर पर सवार।

खिड़कियां उदास हैं
इस रेत के कारण बन्द रहना पड़ता है।

बग़ीचे नहाते हैं दो वक्त
रेत की छूत से घबराए हुए।

बहुत तकलीफ़ होती है नौकरों को भी
जब मालिक की आंख में चुभ जाती रेत।

लेकिन
रेत को देशनिकाला नहीं दिया जा सकता।

कि रेत पर ही खड़े हैं महल माळीये
कि रेत से मिलकर ही बनी मेहराबें
कि रेत में ही सांस ले रही है बग़ीचों की जड़ें
कि मालिक ख़ुद खड़ा हुआ है रेत पर।

हठी, निर्लज्ज, अजर, अमर
रेत ने ही बचाकर रखा हुआ है सबकुछ
सब कुछ बना हुआ भी उसी से है।
* * *

सूने राजमार्गों पर रेत पसर रही है। रेत के पांवों में छाले हैं। रेत घबराई हुई कम है। रेत, महलों और दरबारों से हताश अधिक है।
* * *

रेत ने ईश्वर को पाजेब की तरह पहना हुआ है। रेत ने ईश्वर को कांख में दबा रखा है। रेत ने ईश्वर को सर पर उठा रखा है।
रेत के पास ईश्वर कम से कम होता जा रहा है।
ईश्वर के न रहने पर तुम्हारी इस दुनिया को मिटा कर रेत को नई दुनिया बनानी पड़ सकती है।
* * *


Picture courtesy - scroll.in

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